परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण किले: भैंसरोडगढ़, जयगढ़, नाहरगढ़,मेहरानगढ़ , तारागढ़

 परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण किले: भैंसरोडगढ़, जयगढ़, नाहरगढ़,मेहरानगढ़ , तारागढ़ 

परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण किले: भैंसरोडगढ़, जयगढ़, नाहरगढ़,मेहरानगढ़ , तारागढ़


राजस्थान, भारत के पश्चिमी हिस्से में स्थित, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यहां के किले केवल वास्तुकला के अद्भुत उदाहरण नहीं हैं, बल्कि ये शौर्य, पराक्रम और ऐतिहासिक घटनाओं की गाथाओं को भी समेटे हुए हैं। ये किले राजपूतों के गौरवमयी इतिहास की गवाही देते हैं और भारतीय संस्कृति की विविधता को दर्शाते हैं। इस अध्ययन में हम राजस्थान के कुछ प्रमुख किलों का अवलोकन करेंगे, जो न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि परीक्षा की दृष्टि से भी अत्यंत उपयोगी हैं।

भैंसरोडगढ़ दुर्ग :- चित्तौड़गढ़ 

इस दुर्ग का निर्माण भैंसाशाह व रोडा चारण (व्यापारी) ने करवाया ।

राजस्थान का एक मात्र दुर्ग जिसका निर्माण व्यापारियों ने करवाया ।

उपनाम -राजस्थान का वेल्लोर 

इसके बारे में कर्नल जेम्स टॉड ने कहा कि यदि "मुझे राजपुताने की कोई जागीर पेश की जाए तो मैं भैंसरोड़गढ़ दुर्ग को चुनूंगा."

यह एक जल दुर्ग है जो चंबल और बासनी नदी के किनारे पर बना हुआ है।


जयगढ़ दुर्ग - जयपुर

जयपुर में स्तिथ 

उपनाम - चिल्ह का टीला 

              संकट मोचन दुर्ग

इसका निर्माण मानसिंह ने करवाया व पुननिर्माण जयसिंह ने करवाया।

प्रमुख दरवाजे - डूंगर , अवनी, भैरू।

दिया बुर्ज - दुर्ग में बने हुए बुर्जों में सबसे बड़ा बुर्ज ।

सात मंजिला बना हुआ है।

इसमें प्रकाश स्तंभ बना हुआ है।

विजयगढ़ी - दुर्ग में बना लघु दुर्ग ।

एशिया की सबसे बड़ी तोप जयबाण तोप यहां रखी हुईं है।

अन्य तोपे - रणचंडी, भैरवी, कड़क, बिजली।

भारत का एक मात्र किला,जहां तोपों का निर्माण होता था।

1975 के आस पास तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी ने खजाने की खोज में खुदाई करवाई थी।

जयबाण तोप 

एशिया की सबसे बड़ी तोप

इस तोप का निर्माण जयसिंह द्वितीय ने 1720 ईस्वी में करवाया।

जयबाण तोप के गोले से 35 दूर चाकसू गांव में एक बड़ा तालाब गोरेलाव बना।

नाल की लंबाई - 20 फीट

गोलाई - 8 फीट 7.5 इंच 

वजन - 50 टन है ।

मारक क्षमता - 22 मील 

गोला - 100 किलोग्राम वजनी।

इसकी नाल को पहियों पर दोबारा रखने का कार्य रामसिंह द्वितीय के शासन में हुआ।


मेहरानगढ़ दुर्ग - जोधपुर 

इसका निर्माण राव जोधा ने 1459 ईस्वी में करवाया ।

यह दुर्ग चिड़ियाटुक पहाड़ी पर बना हुआ है।

उपनाम - मयूरध्वजगढ़, गढ़चिंतामणि, काग़मुखी।

आकार - मयूर के समान।

रूढ़यार्ड किपलिंग ने इस दुर्ग के बारे में कहा कि " संभवतः इस दुर्ग का निर्माण परियों व देवताओं द्वारा हुआ है ।"

इस दुर्ग की नींव में राजाराम नामक व्यक्ति की बलि दी गई थी।

दुर्ग के प्रमुख द्वार - लोहापोल, जयपोल, फतेहपोल , अमृतपोल, भैरोपोल , ध्रुवपोल आदि।

दुर्ग में निर्माण - 

मामा भांजा की छतरी 

सिनगार चौकी - इसका निर्माण राजा तख्तसिंह ने करवाया।

मोती महल - इस निर्माण सूरसिंह ने करवाया।

तलहटी महल- इसका निर्माण सूरसिंह ने करवाया ।

फूल महल- इसका निर्माण राजा अभयसिंह ने कराया।

फतेह महल - इसका निर्माण अजीत सिंह ने कराया।

 रनीचर तालाब - इस तालाब का निर्माण रानी जस्मादे ने करवाया।

पदमसागर तालाब - इसका निर्माण रानी पद्मिनी ने करवाया।

प्रधानमंत्री की छतरी।

भूरेखान की मजार ।

इसके अलावा दुर्ग में सूरी खान मस्जिद, नागणेची माता का मंदिर ,पुस्तक प्रकाश संग्रहालय आदि बने हुए हैं।


बीकानेर की करणी माता ने इस दुर्ग की नींव रखी ।

चामुंडा माता मंदिर - राव जोधा द्वारा निर्मित ।

2008 में यहां भगदड़ मची थी जिसकी जांच के लिए जसराज चोपड़ा आयोग गठित किया गया।

मेहरानगढ़ दुर्ग की प्रमुख तोपें 

शंभूबाण, गुब्बार, गजनीखान, जमजमा,किलकिला, बिच्छूबाण, कड़क, गजक, बिजली, गुडधानी, बरसबहाने।


सुवर्णगिरी दुर्ग - जालौर 

इसका निर्माण परमार शासकों द्वारा, नागभट प्रथम द्वारा करवाया गया।

यह दुर्ग सुवर्णगिरी पहाड़ी पर बना है ।

उपनाम - सोनगिरी 

             सोनालगढ़ 

              जबालीपुर 

              कनकाचल।

इस दुर्ग से सम्बन्धित प्रसिद्ध लोकोक्ति - राइयों रा भाव रातें बीता।

उद्योतन सूरी द्वारा रचित कुवायमला का लेखन इसी दुर्ग में किया गया।

दुर्ग के प्रमुख द्वार - सूरजपोल , ध्रुवपोल, चांदपोल, सिरेपोल।

दुर्ग में निर्माण - 

तोप खाना मस्जिद 

मलिकशाह की दरगाह 

परमार कालीन कीर्तिस्तंभ।

1311 ईस्वी में कान्हड़देव चौहान के समय यहां साका हुआ , अलाउद्दीन खिलजी ने इसे जीतकर इसका नाम जलालाबाद रखा।

1607 ईस्वी में जोधपुर शासक गजसिंह ने पठानों से इसे जीत लिया।


सिवाना का दुर्ग - बालोतरा 

इस दुर्ग का निर्माण वीरनारायण परमार द्वारा 954 ईस्वी में करवाया गया।

यह दुर्ग हल्देश्वर की पहाड़ी पर बना हुआ है।

उपनाम - कुमथना दुर्ग

             मारवाड़ के शासकों की शरण स्थली

             जालौर दुर्ग की कुंजी 

           

प्रथम साका- 1308 ईस्वी में अलाउद्दीन के आक्रमण के समय शीतलदेव ने केसरिया किया। अलाऊद्दीन ने इसे जीतकर इसका नाम खैराबाद रखा ।

दूसरा साका - 1582 ईस्वी में मोटा राजा उदयसिंह के आक्रमण के समय कल्ला राठौर ने केसरिया किया।


लोहागढ़ दुर्ग - भरतपुर

इस दुर्ग का निर्माण जाट शासक सूरजमल ने 1733ईस्वी में करवाया।

उपनाम - पूर्वी सीमा का प्रहरी, अजेय दुर्ग, अभेद्य दुर्ग , मिट्टी का किला।

यह दुर्ग पारिख दुर्ग की श्रेणी में आता है, इसके चारों तरफ बनी खाई में मोती झील से सुजान गंगा नहर से पानी आता है।

दुर्ग में निर्माण - 

अष्टधातु दरवाजा - 1765 ईस्वी में जवाहर सिंह जी दिल्ली से लेकर आए।

जवाहर बुर्ज - जवाहर सिंह ने दिल्ली विजय के उपलक्ष्य में इस बुर्ज का निर्माण करवाया।

फतह बुर्ज - अंग्रेजों पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में रणजीत सिंह जी ने इस बुर्ज का निर्माण करवाया।

अन्य निर्माण - किशोरी महल, कचहरी किला भवन, राजेश्वरी माता का मंदिर ।

जाट शासकों की कुलदेवी राजेश्वरी माता हैं।

राजस्थान में भरतपुर और धौलपुर जात रियासतें थी ।

महाराजा सूरजमल को जाटों का प्लेटो, जाटों का अफलातून शासक कहा जाता है।


बयाना दुर्ग - भरतपुर 

इस दुर्ग का निर्माण यादव विजयपाल द्वारा करवाया गया।

उपनाम - बाणासुर , शोणितपुर, विजयममदिर गढ़, बादशाह किला 

यह दुर्ग मानी पहाड़ी (दमदमा) पर बना हुआ है।

इस दुर्ग में राजस्थान का सबसे प्राचीन विजय स्तंभ है ,जिसका निर्माण समुद्रगुप्त के सामंत विष्णुवर्धन ने करवाया।

दुर्ग में अन्य निर्माण - 

रानी चित्रलेखा द्वारा निर्मित - ऊषा मंदिर ( बाद में इसे इल्तुतमिश ने ऊषा मस्जिद में बदल दिया )

जहांगीरी दरवाजा 

 अकबरी छतरी 

एक 8 मंजिला इमारत "भीमलाट" बनी हुई है।


नाहरगढ़ दुर्ग - जयपुर

इस दुर्ग का निर्माण सवाई जयसिंह ने 1734 ईस्वी में करवाया।

उपनाम - सुदर्शनगढ़

             लक्ष्मणगढ़

             जयपुरध्वज गढ़

इस दुर्ग का आकार श्री कृष्णा के मुकुट के समान है।

इसका नाम नाहरसिंह भौमिया के नाम पर रखा गया।

इस दुर्ग में माधोसिंह द्वितीय ने अपनी 9 रानियों के लिए विक्टोरिया शैली में 9 महल बनवाए।

इस दुर्ग की तलहटी में गेटोर की छतरियां हैं जहां जयपुर के कच्छवाहा शासकों की छतरियां बनी हैं।

जगत सिंह द्वितीय की प्रियसी रस कपूर को यहां कैद में रखा गया था।

दुर्ग में निर्माण 

दीवाने आम, खजाना भवन, सैनिक विश्राम गृह इनका सबका निर्माण सवाई जयसिंह द्वितीय ने करवाया।

हवा मंदिर का निर्माण सवाई रणसिंह द्वितीय ने करवाया।

माधवेंद्र भगवान का निर्माण माधोसिंह द्वितीय ने करवाया।


माधोराजपुरा का किला - जयपुर ग्रामीण 

इस किले का निर्माण माधोसिंह प्रथम द्वारा कराया गया।

कंकोड के युद्ध में मराठों को हराने के उपलक्ष्य में इस किले का निर्माण कराया।

भौमिया करण सिंह नरूका का सम्बन्ध इस किले से रहा है।

रूपा बडारन (सवाई जयसिंह ३) की धाय मां को यहां कैद में रखा गया।

इस किले के पास में खेड़ा के बालाजी का मंदिर बना है ।


चौमुंहागढ़/चौमू का किला - जयपुर ग्रामीण 

इस किले का निर्माण ठाकुर कर्ण सिंह ने संत बेनिदाश के आशीर्वाद से करवाया।

रघुनाथ सिंह द्वारा इसका पुनर्निर्माण करवाया गया।

उपनाम - रघुनाथगढ़ , धाराधारगढ़, सामंती दुर्ग

इसमें बना देवी निवास महल जयपुर के अल्बर्ट हाल के जैसा बना है ।


तारागढ़ - अजमेर 

इस दुर्ग का निर्माण अजमेर चौहान शासक अजयपाल/ अजयराज ने १११३ ईस्वी में करवाया।

उपनाम - अजयमेरू, गठबिठली, अरावली का अरमान, राजपुताने की कुंजी ,राजस्थान का नाका ।

विलियम बैंटिक ने इसे दूसरा जिब्राल्टर कहा है।

इस दुर्ग पर राजस्थान में सबसे ज्यादा देसी आक्रमण हुए।

पृथ्वीराज सिसोदिया की रानी ताराबाई के नाम पर इसका नाम तारागढ़ रखा गया।

शाहजहा के सेनाअध्यक्ष विट्ठलदास गौड़ द्वारा इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया गया।

दुर्ग में निर्माण - 

मीरान शाहब की दरगाह, घोड़े की मजार, रूठी रानी की छतरी, चश्मा ए नूर और १४ बुर्ज बने हुए हैं।


तारागढ़ बूंदी का किला 

इस दुर्ग का निर्माण 1352 ईस्वी में बरसिंह द्वारा करवाया गया।

उपनाम - तिलस्मी किला

धरती से देखने पर आकाश के तारे के समान दिखाई देने के कारण इसका नाम तारागढ़ पड़ा।

इसके बारे में रूढ़ियार्ड किपलिंग ने कहा कि "इस दुर्ग का निर्माण मानव द्वारा नहीं बल्कि भूतों प्रेतों द्वारा किया गया है "।

इस दुर्ग में गर्भ गुंजन जैसी शक्तिशाली तोपें हैं।

दुर्ग में अन्य निर्माण - 

चित्रशाला (रंगविलास महल)

रतन महल 

फूल महल 

दीवान ए आम

नौबत खाना 

जीव रक्खा महल 

रानी जी की बावड़ी।


राजस्थान के किले न केवल पर्यटन के आकर्षण का केंद्र हैं, बल्कि ये हमारी ऐतिहासिक पहचान और सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतीक हैं। प्रत्येक किला अपनी अलग कहानी और विशेषताएँ लेकर आता है, जो उसे अन्य किलों से अलग बनाती हैं। इन किलों का अध्ययन विद्यार्थियों के लिए न केवल इतिहास की गहरी समझ प्रदान करता है, बल्कि उन्हें भारतीय संस्कृति और स्थापत्य कला के महत्वपूर्ण पहलुओं से भी परिचित कराता है। इस प्रकार, राजस्थान के ये किले शिक्षा और अनुसंधान के लिए एक अमूल्य स्रोत बने रहते हैं, जो भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे।

              


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